एक खुली किताब जैसी
हैं मेरी ज़िंदगी
न सीखा दिखलाना झूठी शान
न जाना दूनियादारी
अदृश्य
डोरो से बँधी हुई है
मेरी सत्वा आपस में सब रिश्तो को जोड्रती
न तो मैं रत्नाकर न बाल्मिकी
फिर भी तप पर बैठा हूँ
न जाने क्यौं
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