जैसे
दूर कहींसे
आ रही
सुललित
सकरूण
एक
बंशी की धुन हो
जो बनाती हैं
मुझे भाव विभोर !
मुझे मालूम हैं
न मिलेगा
न आएगा
वापस कभी
मेरा सुनहरा बचपन
फिर भी पागल मन
यादों की चिड़ीयो के सहारे
कोशिस करता हैं बारबार
उसे स्पर्श करने की
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